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धरे देहरी / रश्मि विभा त्रिपाठी

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1
प्रिय! श्रेष्ठ है
मात्र ये मन- प्रांत
वातावरण शांत
भाव- आसन्दी
बिछी कोमलकांत
आओ करें वृत्तांत।
2
तुमने टाँके
मेरे अंक में तारे
मिटाए अँधियारे
अपने सुख
मुझपे सदा वारे
प्रिय! तुम हो न्यारे।
3
मन उन्मन
जब- जब भी हारे
उनको ही पुकारे
प्रिय आ बालें
घर- आँगन- द्वारे
धैर्य- दीपक न्यारे।
4
मेरे प्रिय का
मधुर व्यवहार
मेरी मुक्ति का द्वार
जब सुनें वे
करुणा की पुकार
कष्टों से लें उबार।
5
अलि मैं सदा
जाती हूँ साधिकार
मेरे प्रिय के द्वार
वे भर देते
अंक में हर बार
प्रेम- निधि अपार।
6
प्रिय तुमने
प्यासे मन की प्याली
कभी न रखी खाली
नित्य उड़ेली
प्रेम- सुधा निराली
झूमूँ मैं मतवाली।