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दलील / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल

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मुल्क यह, घोड़ी के सिर जैसी बनक वाला —
चौकड़ी भरती हुई,
         एशिया के परे, उधर दूर से आती हुई
और भूमध्य सागर में पसर जाती हुई, घोड़ी वह —
                                              वतन हमारा है ।

क़लाइयाँ ख़ून में लिथड़ी हुई, दाँत भिंचे हुए
                                          नंगे पैर,
किसी क़ीमती रेशमी क़ालीन जैसा मुल्क यह
जहन्नुम कहिए या कि जन्नत
                                              वतन हमारा है ।

बन्द ही रहने दो उन दरवाज़ों को, जो हैं परायों के
आइन्दा कभी वे खुलें नहीं
आदमी गुलामी बजाये आदमी की
         ख़त्म हो यह सिलसिला
                             दलील हमारी है ।

ख़ुद पर खड़े किसी दरख़्त की तरह जीना
बिरादराना जंगल में बिरादराना जीवन जीना
                           लालसा हमारी है ।

१९४५

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल