मुल्क यह, घोड़ी के सिर जैसी बनक वाला —
चौकड़ी भरती हुई,
एशिया के परे, उधर दूर से आती हुई
और भूमध्य सागर में पसर जाती हुई, घोड़ी वह —
वतन हमारा है ।
क़लाइयाँ ख़ून में लिथड़ी हुई, दाँत भिंचे हुए
नंगे पैर,
किसी क़ीमती रेशमी क़ालीन जैसा मुल्क यह
जहन्नुम कहिए या कि जन्नत
वतन हमारा है ।
बन्द ही रहने दो उन दरवाज़ों को, जो हैं परायों के
आइन्दा कभी वे खुलें नहीं
आदमी गुलामी बजाये आदमी की
ख़त्म हो यह सिलसिला
दलील हमारी है ।
ख़ुद पर खड़े किसी दरख़्त की तरह जीना
बिरादराना जंगल में बिरादराना जीवन जीना
लालसा हमारी है ।
१९४५
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल