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हेमलेट / बरीस पास्तेरनाक/ अनिल जनविजय

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डॉ0 जिवागो’ उपन्यास में शामिल एक कविता

मंच पर जब मैं आया, तो बन्द हो गया शोर
खड़ा हुआ था मैं तब, उस दरवाज़े की ड्योढ़
मैंने प्रतिध्वनि को पकड़ा, जो थी बेहद वाचाल
बता रही थी मुझे ये, कैसे गुज़रेगा जीवनकाल

धुँधलका रात का तब, छाया था मुझपर
टिकी हुई थीं हज़ारों, तीखी नज़रें जिसपर
सम्भव हो यदि तुमसे, तो हे परमपिता
इस विष-पात्र को तू, मुझ तक दे पहुँचा

मुझे पसन्द है तेरा, यह पक्का हठी इरादा
यह अभिनय करने का, करता हूँ मैं वादा
पर अभी यहाँ पर खेल, चल रहा है कोई और
इस बार छोड़ दे मुझको, अभिनेता के बतौर

है पहले से तय यहाँ, खेल का सारा ख़ाका
इस राह का दिख रहा है, वो आख़िरी नाक़ा
अकेला हूँ मैं यहाँ औ’ ढोंग में है सब कुछ डूबा
रंगभूमि नहीं है कोई ये — ज़िन्दगी है अजूबा
1946

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
 
लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
                   Борис Пастернака
Стихотворение из романа «Доктор Живаго»

Гул затих. Я вышел на подмостки.
Прислонясь к дверному косяку,
Я ловлю в далеком отголоске
Что случится на моем веку.

На меня наставлен сумрак ночи
Тысячью биноклей на оси.
Если только можно, Авва Отче,
Чашу эту мимо пронеси.

Я люблю твой замысел упрямый
И играть согласен эту роль.
Но сейчас идет другая драма,
И на этот раз меня уволь.

Но продуман распорядок действий,
И неотвратим конец пути.
Я один, все тонет в фарисействе.
Жизнь прожить — не поле перейти.

1946