भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसीयत / निकअलाय ज़बअलोत्स्की / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:22, 2 अगस्त 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निकअलाय ज़बअलोत्स्की |अनुवादक=अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्तिम वर्ष जीवन के अपने धरती पर बिताकर
सदा के लिए चला जाऊँगा मैं अपनी लौ बुझाकर
मलिन से बदलावों वाली इस अनन्त दुनिया में
आएँगी लाखों नई पीढ़ियाँ, अपना सर उठाकर

ये नई पीढ़ियाँ चमकाएँगी दुनिया को जादू से विशेष  
पूरा करेंगी काम कुदरत का जो रह गया अधूरा —
नदी-जल में छुप जाएँगे जब मेरे दीन-हीन अवशेष
या हरियाली की शरण मुझे देगा, वन ये भरा-पूरा
 
मैं नहीं मरूँगा, दोस्त मेरे, फूलों में लूँगा सांस
बाक़ी बचा रह जाऊँगा कहीं इस दुनिया में ही
सदियों पुराने देवदार में जीवित रहूँगा मैं सदा
घिरा रहूँगा रूखी-उदास जड़ों की थुनिया में ही

उसके चौड़े पत्तों के नीचे मेरा मन आराम करेगा
और शाखाओं पर संजोऊँगा मैं अपने भावों को
वन के गहरे अन्धकार में वो छा जाएँगे तुम पर
तुम जुड़े हुए चेतस से मेरे पुष्ट करो सब दावों को

मेरा हाथ रहेगा सिर पर तुम्हारे, ओ मेरे वंशज
श्रीहीन बिजली की तरह चमकूँगा मैं आकाश में
किसी पंछी की तरह उड़ूँगा धीरे-धीरे तेरे ऊपर
बरसूँगा तेज़ बारिश बनकर, दमकूँगा हरी घास पे

जीवन से सुन्दर और बेहतर दुनिया में कुछ नही है
क़ब्रों का ख़ामोश अन्धेरा, अवसाद औ ख़ामोशी है
यह जीवन बिता दिया मैंने, व्यग्र औ’ विकल क्षणों में
चहुँ ओर जीवन की हलचल, जीवन की मदहोशी है

इस दुनिया में मैं आया था, सुनने को माँ की लोरी
दुनिया को देखा पहली बार औ’ दुनिया में आँखें खोली
इस धरती पर ही पहली बार, मैंने कुछ सोचा-विचारा
मैं पारदर्शी बेजान पत्थर था, पर जीवन ने मुझे सँवारा

पहली बार बारिश की बून्दें गिरी जब मेरे सिर पर
किरणों ने उन्हें सोख लिया उड़ गईं वे भाप बनकर 
अरे, जिया नहीं मैंने दुनिया में जीवन यूँ ही बेकार 
मेरे वंशज भी व्यक्त करेंगे मेरे प्रयासों का आभार 
 
नई पीढ़ियाँ, वो दूर के वंशज, अक्सर मुझे करेंगे याद
जो काम अधूरे छूट गए हैं, करेंगे उनकी साज-संभार।   

1947

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए

         НИКОЛАЙ ЗАБОЛОЦКИЙ
                     Завещание

     Когда на склоне лет иссякнет жизнь моя
     И, погасив свечу, опять отправлюсь я
     В необозримый мир туманных превращений,
     Когда мильоны новых поколений
     Наполнят этот мир сверканием чудес
     И довершат строение природы,--
     Пускай мой бедный прах покроют эти воды,
     Пусть приютит меня зеленый этот лес.

     Я не умру, мой друг. Дыханием цветов
     Себя я в этом мире обнаружу.
     Многовековый дуб мою живую душу
     Корнями обовьет, печален и суров.
     В его больших листах я дам приют уму,
     Я с помощью ветвей свои взлелею мысли,
     Чтоб над тобой они из тьмы лесов повисли
     И ты причастен был к сознанью моему.

     Над головой твоей, далекий правнук мой,
     Я в небо пролечу, как медленная птица,
     Я вспыхну над тобой, как бледная зарница,
     Как летний дождь прольюсь, сверкая над травой.
     Нет в мире ничего прекрасней бытия.
     Безмолвный мрак могил -- томление пустое.
     Я жизнь мою прожил, я не видал покоя:
     Покоя в мире нет. Повсюду жизнь и я.

     Не я родился в мир, когда из колыбели
     Глаза мои впервые в мир глядели,--
     Я на земле моей впервые мыслить стал,
     Когда почуял жизнь безжизненный кристалл,
     Когда впервые капля дождевая
     Упала на него, в лучах изнемогая.

     О, я недаром в этом мире жил!
     И сладко мне стремиться из потемок,
     Чтоб, взяв меня в ладонь, ты, дальний мой потомок,
     Доделал то, что я не довершил.
     —
      1947