Last modified on 13 नवम्बर 2022, at 09:35

मत रहो चुप / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:35, 13 नवम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भोर की
भटकी किरन
आ गई
तुमको जगाने
द्वार खोलो,
मत रहो चुप
मुखारविन्द से
दो शब्द बोलो।

यह किरन
तेरे हृदय का है उजाला
इस किरन को
आस जैसे तुमने पाला ।
चूम लो स्मित अधर से
मुँह न मोड़ो
यह तुम्हारे उर की खुशबू
दिल न तोड़ो

यह तुम्हारी ही कृति
अनुभूति यह तुम्हारी
प्राण से भी ज़्यादा प्यारी
इसे हृदय में बसा लो
भटकी निकलकर गोद से
गले से इसको लगा लो।
मनप्राण में इसको बसा लो।
बहुत कुछ करना तुम्हें
कुछ तो बोलो
सागर- सा मन तुम्हारा
उठो उसके द्वार खोलो।
 -0-