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प्रेयसी हो तुम! / कविता भट्ट

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अभी भी प्रतीक्षा है
उस क्षण की-
जब तुम कहते
कि प्रेयसी हो तुम-
तुम्हारी पलक झपकते ही
साक्षात् और जीवंत
हो उठती हैं
वेदों की ऋचाएँ
हाँ, तुम्हारी मंद स्मित
रामायण- सी
पवित्र कर देती है
मेरी प्रत्येक कामना को।
तुम्हारी सघन केशराशि
एकमात्र प्रतीक है
सूत्रकाल के गुँथे हुए
अनगिनत रहस्यों की।
संहिताएँ ही तो हैं
तुम्हारे कंठ पर लिपटी हुई
चमेली के सुगंधित पुष्पहार में
जो मुझे मंत्रमुग्ध कर देती हैं।
तुम्हारी श्वासों के स्वर ताल पर
नृत्य करती हुई प्रतीत होती हैं
असंख्य अप्सराएँ
स्निग्धा !
तुम्हारी वाणी से
निःसृत शब्दावली
ऋषिकाओं के श्रीमुख से उद्घाटित
अकाट्य सत्य है।
तुम मंदराचल - समुद्र मंथन से
प्राप्त सुधा का कलश हो।
मैं याचक बनकर
तुमसे कुछ घूँट माँगता हूँ।
भय है तो केवल यही-
कि कभी तुम्हें आघात न दे दूँ
तुम्हारा एक अश्रु भी
सृष्टि में प्रलय का सूचक है।
क्योंकि प्रेयसी हो तुम!