स्त्री की आवाज़ / अर्चना लार्क
जब तुम जनेऊ लपेट रहे थे
कुछ दूर एक सुन्दर बच्चा अपने होने की गवाही दे रहा था
जब मन्त्रों की बौछार के बीच
तुम भाग्य का ठप्पा लगा रहे थे
कुछ दूर वह बच्चा सँघर्ष का पहला पाठ पढ़ रहा था
जब तुम अपने नाकारापन पर गँगाजल छिड़क रहे थे
और उस बच्चे को हर कहीं रोक रहे थे
तुम्हारी मूर्खता तुम्हारी चोटी की तरह लहरा रही थी
तुम उसकी बुद्धि को पहचानाने से इनकार करते रहे
वह कोई था एकलव्य या उसका वँशज रोहित वेमुला
तुमने कहा वे चहांरदीवारी के अन्ददर नहीं आ सकते
अपने स्वार्थ से समय को सिद्ध करते हुए
तुमने उन्हें अपनी थालियों से दूर रखा
कुर्सी पर विराजमान तुम
उन्हें अपने पैरों के पास बिठाने को क्रान्ति समझते रहे
तुम स्त्रियों को कभी राख तो कभी पत्थर बनाते चलते रहे
तुम्हारा पुरुषत्व उन पर गुर्राता रहा
फिर एक दिन तुमने कहा कि घर ही ख़ाली कर दो !
तुम्हारे खड़ाऊँ तुम्हारी धोती तुम्हारा अँगौछा जनेऊ
मस्तक पर उभरा हुआ चन्दन तुम्हारा भोजन
सब उनका श्रम है
तुम नंगे हो अपनी जाति अपने प्रतीकों अपने धर्म के भीतर
"तुम विधर्मी सब गद्दार हो" कहने वाले तुम
ज़रा नज़रें घुमाकर देखो एक लम्बी कतार है
सौन्दर्य से भरा हुआ एक ’शाहीन बाग़’
सुनो वे आँखे तुमसे क्या कह रही हैं?
मैंने अभी-अभी सुना — ‘हिटलर गो बैक’
और सबसे ऊँची आवाज़ उस स्त्री की है
जिसे तुम अपने शास्त्रों के खौलते हुए तेल में
डुबोते रहे थे बार-बार ।