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अब लौटें / उदय प्रकाश
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चौथे पहर दिन की
अन्तिम धूप में
मैंने बचपन के दिनों का
वही साँवला नाम
ज़ोर से लिया ।
छोटी-सी लड़की
अगले मोड़ पर दूऽर
बस्ता सँभालती
अदृश्य हो गई ।
सहजन के पेड़ ने
ज़ोरों से मंजीरा बजाया ।
एक मैना ने
टिहरी मारी ।
पका हुआ महुआ
कहीं टपका
टप्प से ।
चौथे पहर की धूप
कितनी पारदर्शी हो जाती है
और कितनी कम देर
रुकती है।
मेरी हथेलियों में
कुछ देर पहले
जहाँ द्रवित हो रहा था
वह साँवला चेहरा
वहाँ अब
धूप भी तो नहीं है ।
चलें अपन राम
अपने घर चलें
वह लड़की भी तो गई
कई बरस हुए अपने घर ।