कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक रक्तिम युद्ध-भूमि सेलौट न जो आए, नहीं मरे वे वहाँ, बने मानो सारस उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए ।
उन्हीं दिनों से, बीते हुए ज़माने से उड़े गगन में, गूँजें उनकी आवाज़ें क्या न इसी कारण ही अक्सर चुप रहकर भारी मन से हम नीले नभ को ताकें ।
आज, शाम के घिरते हुए अन्धेरे में देखूँ, धुन्ध-कुहासे में सारस उड़ते, अपना दल-सा एक बनाए उसी तरह जैसे जब थे मानव, भू पर डग भरते ।
वे उड़ते हैं, लम्बी मंज़िल तय करते और पुकारें जैसे नाम किसी के वे, शायद इनकी ही पुकार से इसीलिए शब्द हमारी भाषा के मिलते-जुलते ?
उड़ते जाते हैं सारस-दल थके-थके धुन्ध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है, उस तिकोण में उनके ज़रा जगह ख़ाली वह तो मेरे लिए,