भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काफ़िला तो चले / कैफ़ी आज़मी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 7 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैफ़ी आज़मी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ख़ारो-ख़स<ref>झाड़-झंखाड़</ref> तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले
चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले
हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले
इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत<ref>मर्यादा</ref> बचा तो चले
बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले
शब्दार्थ
<references/>