मैंने कविता लिखनी चाही
एक घर पे:
एक ही छत के नीचे
बंटा हुआ एक घ र
कितने ही कट-
घ रों में विभाजित,
सब में पृथक्-
पृथक् चूल्हा,
चूल्हे से उठता धुँआ-
सब क-ट-घ-रों में फैल रहा,
धुँए में कुछ भी
साफ़ नहीं दीख पड़ रहा...
धुँआ हटे
तो कविता बने...