शिक्षा वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः,
प्रभो! ग्रहण, भाषण, आचरण हो सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा॥ [ १ ]
ऋत भाषा की शिक्षा, विधा और व्याकरण का ज्ञान हो।
सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ, संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों।
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,
अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो।
यश ब्रह्म वर्चस वृद्धि हो, सह शिष्य और आचार्य की,
हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की।
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,
भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर, वायु संयोजक अथ रचित है।
अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है,
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है।
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,
यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा।
गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा।
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,
यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है।
अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है।
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,
अथ प्रजा विषयक संहिता, उपनिषद कथयति तत्व है।
नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है।
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,
अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है।
पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है।
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,
परिपूर्ण जीवन, पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से।
ओंकार वेदों से निःसृत अति श्रेष्ठ अमृत सिद्ध है,
संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध है।
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,
शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ।
मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु, श्री व् संवर्धन रहे।
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,
श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से।
सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को।
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,
स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो।
मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में।
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!
इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो!
यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं।
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को
अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को।
ॐ भूः, भुर्वः, स्वः, तीन चौथी महः व्याहृतियों यथा,
इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा।
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः स्वः की आत्मा,
यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा।
भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है।
ऋग्वेद भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,
परमेश प्रभु का तत्व तात्विक , वेदों से ही गम्य है।
भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं।
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,
इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं।