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प्रतीक्षा / चन्द्रकान्त देवताले

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परेशान शब्दों से घिरा हुआ होने पर
कितना मुश्किल हो रहा है
एक भी शब्द ढूँढ लेना
उस चीज़ के लिए
जो मौत के बेहद नज़दीक नहीं है
पर ज़िन्दगी से बहुत दूर जा गिरी है

बौखलाई हुई दिनचर्या के बाद
नींद को किसी शांत राग में गूँथ लेना
कितनी बड़ी हिमाकत होगी
चाहे आप सचमुच में आदमी ही क्यूँ न होओ,

एक धब्बा धडकनों तक जाकर
फैलता जा रहा है
यहाँ बाहर कितनी साड़ी रेत बिछी है
और फूलों के बीज
कसी हुई मुट्ठी के पसीने में नहा रहे हैं
परछाइयों की सीमाएँ और
झूलती हुई चीज़ों की परछाइयों के बीच फैलता हुआ
कुत्तों का रुदन
और स्मृतियाँ ख़ुद की
दूर किसी काले पहाड़ पर चढ़ती हुई
और तुम यहाँ
सूखी हुई नदी के बिस्तर पर
उत्तेजित शब्दों की भीड़ में घिरे हुए...

प्रतीक्षा करो बरसात की और
फिर और बरसात के बाद
दिन की हरी आँखों की
और फिर उस हरी रौशनी में
ढूँढना अपने शब्द बीज को
शायद तुम्हारे समय के क्षितिज पर
कोई सूर्यमुखी फूल हँसता हुआ मिले...