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कम्बल / अनूप सेठी

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आओ दोस्त आओ कैसे हो
आखिर स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा फिर से
जब इतिहास पढ़ाते होंगे बच्चों को
ज़ुबान लड़खड़ा जाती होगी
राजनीति के सिद्धाँत बताते वक्त
टीवी और अखबारों की तस्वीरें आँखों के आगे नाचती होंगी
समाजशास्त्र की क्लास में तो पैरों के
फफोले ज़रूर दुखते होंगे

कक्षा में भी ऐसे ही कलेजा कड़ा किए रहते हो दोस्त
जैसे तुम इस वक्त दिख रहे हो
पता नहीं कितना समंदर अपने अंदर थामे हुए

भैया मुझ तक को दिखती रहती है तुम्हारी
जली हुई रसोई मेज़ और कुर्सी
बच्ची की झुलसी हुई कुर्ती
और जी पंखनुचे कबूतर सा फड़फड़ाता है

ऐसे में भाई सुबह सूरज तुमसे नज़र कैसे मिलाता होगा
दिन भर तुम्हारे अंदर लावा उफनता होगा
रात को कैसे आती होगी सांस

ज़रा हिम्मत जुटाओ तो बताओ
सारे हाल जानना चाहता हूं

दोस्त और मेरे बीच विकट मौन था
जो न कभी देखा सुना न कभी झेला भोगा था

हौले से वो बोला लगभग फुसफुसा के जैसे खुद को
इस बयान से अनजान रखना चाहता हो

राख बनी बस्तिओं पर
भव्य अट्टालिकाएं उग आएंगी एक दिन
एक दिन शायद सब सुलट भी जाएगा

एक बार फिर खड़ा था हमारे बीच मौन
विकट ही नहीं हताश भी।


दोस्त

आओ दोस्त आओ कैसे हो
आख़िर स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा फिर से
जब इतिहास पढ़ाते होंगे बच्चों को
ज़ुबान लड़खड़ा जाती होगी
राजनीति के सिध्दांत बताते वक्त
टीवी और अखबारों की तस्वीरें आंखों के आगे नाचती होंगी
समाजशास्त्र की क्लास में तो पैरों के
फफोले ज़रूर दुखते होंगे

कक्षा में भी ऐसे ही कलेजा कड़ा किए रहते हो दोस्त
जैसे तुम इस वक्त दिख रहे हो
पता नहीं कितना समंदर अपने अंदर थामे हुए

भैया मुझ तक को दिखती रहती है तुम्हारी
जली हुई रसोई मेज़ और कुर्सी
बच्ची की झुलसी हुई कुर्ती
और जी पंखनुचे कबूतर सा फड़फड़ाता है

ऐसे में भाई सुबह सूरज तुमसे नज़र कैसे मिलाता होगा
दिन भर तुम्हारे अंदर लावा उफनता होगा
रात को कैसे आती होगी सांस

ज़रा हिम्मत जुटाओ तो बताओ
सारे हाल जानना चाहता हूं

दोस्त और मेरे बीच विकट मौन था
जो न कभी देखा सुना न कभी झेला भोगा था

हौले से वो बोला लगभग फुसफुसा के जैसे खुद को
इस बयान से अनजान रखना चाहता हो

राख बनी बस्तिओं पर
भव्य अट्टालिकाएं उग आएंगी एक दिन
एक दिन शायद सब सुलट भी जाएगा

एक बार फिर खड़ा था हमारे बीच मौन
विकट ही नहीं हताश भी।

(दोस्त की जगह मैं असली नाम रखना चाहता था। इत्तिफाकन वह मुसलमान है। महज़ इसलिए एक दोस्त और एक शख्सियत को संबंधवाचक संज्ञा में बदलना पड़ा। माहौल ऐसा है कि अगर वो पहचान लिया जाए तो मारा भी जा सकता है। नाम बदला भी जा सकता था। कहीं इस नाम का कोई और शख्स इस धरती पर हुआ तो उसकी जान भी खतरे में पड़ जाएगी। दोस्त! तुम्हें संज्ञा में बदलने का दुख है। माफ करना। अपने समय पर हमें शर्म है।)
(1993)