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कविता के भ्रम में / धूमिल

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क्या तुम कविता की तरफ़ जा रहे हो ?
नहीं, मैं दीवार की तरफ़
जा रहा हूँ ।
फिर तुमने अपने घुटने और अपनी हथेलियाँ
यहाँ क्यों छोड़ दी हैं ?
क्या तुम्हें चाकुओं से डर लगता है ?


नहीं मैं सहनशीलता को
साहस नहीं कहता ।
और न दुहराना ही चाहता हूँ
पैसे भर जुबान से पिछली उपलब्धियाँ :
अपनी भूख और लड़कियाँ
नींद के सिरहाने फैली हुई
शेर छाप तकिए की बू
नेकर में नाड़े-सी पड़ी हुई पत्नी का प्यार
रिस्तों की तगार में ऊँघती हुई
एक ख़ास और घरेलू किस्म की 'थू'
आक !

कविता के कान हमेशा चीख़ से
सटे रहते हैं !
नहीं; एक शब्द बनने से पहले
मैं एक सूरत बनना चाहता हूँ
मैं थोड़ी दूर और-और आगे
जाना चाहता हूँ

जहाँ हवा काली है । जीने का
ज़ोख़म है । सपनों का
वयस्क लोक-तन्त्र है । आदमी
होने का स्वाद है ।

मैं थोड़ा और आगे जाना चाहता हूँ
जहाँ जीवन अब भी तिरस्कृत है
संसद की कार्यवाही से निकाले गए वाक्य की तरह ।

अच्छा तो विदा मित्र ! विदा
जाओ,
लेकिन मैं जानता हूँ कि कल
जब भाषा की तंगी में ऊबते हुए
अपने शहर में वापस आओगे
तुम मुझे गाओगे जैसे अकाल में
खेत गाए जात्ये हैं
और अभियोग की भाषा के लिए
टटोलते फिरोगे वे चेहरे
जो कविता के भ्र्म में
जीने के पहले ही
परदे के पीछे
नींद में मर चुके हैं।