भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुस्सैल औरत सोचती है / अवतार एनगिल
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:26, 18 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवतार एनगिल |एक और दिन / अवतार एनगिल }} <poem> धूप सने द...)
धूप सने दिन से जूझकर
घर लौटते हुए
वह गुस्सैल औरत
सोचती है-
आज नहीं करूंगी लापरवाही
पहुँचते ही घर
धोकर पाँव
नर्म कपड़े से सुखाऊँगी
आज तो ज़रूर....
आज तो ज़रूर
शांत रहूंगी
चाहे कितना कुछ बिखरा हो
आदमी से अपशब्द नहीं कहूँगी
धोड़ी देर चाहे
पर बच्चों से बतियाऊंगी
उनकी मन पसंद
भाजी बनाऊंगी