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ढेला और पत्ता / अरुण कमल

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हम कुल दो थे

दोनों साथी

राह थी लम्बी

थक कर चूर,

वह भी मैं भी


कस कर भूख लगी थी मुझको,

पैसा भी कुछ जेबी में था,

किन्तु उसे भी देना होगा,

यही सोच मैं भूखा चलता गया ।


कस कर प्यास लगी थी उसको,

पैसा भी कुछ जेबी में था,

किन्तु उसे भी देना होगा,

यही सोच वह प्यासा चलता गया ।


दोनों खा सकते थे थोड़ा

दोनों पी सकते थे थोड़ा

दोनों जी सकते थे थोड़ा

मैं भी वह भी ढेला-पत्ता ।