भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जितनी भी है दीप्ति / अरुण कमल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:24, 6 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल }} धीरे धीरे झर गई मिट्टी रहा बचा केवल जड़-रेश...)
धीरे धीरे झर गई मिट्टी
रहा बचा केवल जड़-रेशा
अंश अंश कर दमक घट रही
बदल सिर पर छाए
उतर गए सब बीच राह में
हुई उलार अब गाड़ी
हाथ आँचने उठे नागरिक
कब की टूटी पाँत
खाते खाते दाँत झड़े पर
पत्तल पकड़े रहा किनारे
चारों ओर अँधेरा छाया
मैं भी उठूँ जला लूँ बत्ती
जितनी भी है दीप्ति भुवन में
सब मेरी पुतली में कसती ।