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जितनी भी है दीप्ति / अरुण कमल

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धीरे धीरे झर गई मिट्टी

रहा बचा केवल जड़-रेशा


अंश अंश कर दमक घट रही

बदल सिर पर छाए

उतर गए सब बीच राह में

हुई उलार अब गाड़ी


हाथ आँचने उठे नागरिक

कब की टूटी पाँत

खाते खाते दाँत झड़े पर

पत्तल पकड़े रहा किनारे


चारों ओर अँधेरा छाया

मैं भी उठूँ जला लूँ बत्ती

जितनी भी है दीप्ति भुवन में

सब मेरी पुतली में कसती ।