भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आइने में उसकी हँसी / सुदीप बनर्जी
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:13, 6 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: आइने में उसकी हंसी उसकी अंतरात्मा को नजर अंदाज करती अपना नाम पह...)
आइने में उसकी हंसी उसकी अंतरात्मा को नजर अंदाज करती
अपना नाम पहने वह दस्तक देती है नित नये ठिकानों पर अपनी आमद का ऐलान करती
अपना नाम पहने उसकी हंसी दस्तकों से भर देती है समूची दुनिया को
कोई है क्या कहीं इस निरवधि काल और विपुला पृथ्वि में कोई कहीं छिपा हुआ ?
अपना नाम उतार कर अब वह आइने के समक्ष
उसके नजर अंदाज को समानधर्मा सहेलियों के जन्मांतरों में पिरोती हुई