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सत्य के तन के कई टुकड़े हुए / जहीर कुरैशी
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सत्य के तन के कई टुकड़े हुए
एक दर्पन के कई टुकड़े हुए
स्वार्थ छोटे जब बड़े होने लगे
मूल आँगन के कई टुकड़े हुए
रूप यदि भूलों का का अल्बम बन गया
रूप के मन के कई टुकड़े हुए
हो गए जिस रोज़ पति-पत्नी अलग
मूक बचपन के कई टुकड़े हुए
धर्म पर इतने मतान्तर हो गए
ईश -वन्दन के कई टुकड़े हुए