भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नवीन कल्पना करो / गोपाल सिंह नेपाली

Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:25, 16 अगस्त 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: गोपाल सिंह नेपाली

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,

             तुम कल्पना करो ।


अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है

मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है

हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है

अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है

लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की-

तुम कामना करो, किशोर कामना करो,

                 तुम कामना करो ।  


तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है

मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है

घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है

पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है

टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का-

तुम साधना करो, अनंत साधना करो,

                तुम साधना करो ।


हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना

करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना

रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना

था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी

तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो

                तुम भावना करो ।