संगिनी / रंजना भाटिया
यूं जब अपनी पलके उठा के
तुम देखती हो मेरी तरफ़
मैं जानता हूँ
कि तुम्हारी आँखे
पढ़ रही होती है
मेरे उस अंतर्मन को
जो मेरा ही अनदेखा
मेरा ही अनकहा है
अपनी मुस्कराहट से
जो देती हो मेरे सन्नाटे को
हर पल नया अर्थ
और मन की गहरी वादियों में
चुपके से खिला देती हो
आशा से चमकते
सितारों की रौशनी को
मैं जानता हूँ कि
यह सपना मेरा ही बुना हुआ है
पूर्ण करती हो मेरे अस्तित्व को
छाई सरदी की पहली धूप की तरह
भर देती हो मेरे सूनेपन को
अपने साये से फैले वट वृक्ष की तरह
सम्हो लेती हो अपने सम्मोहन से
मैं जानता हूँ कि
यही सब मेरे साँस लेने की वजह है
तुम जो हो ....
एक अदा.....
एक आकर्षण....
एक माँ ,एक प्रेमिका
और संग संग जीने की लय
मैं जानता हूँ कि
प्रकति का सुंदर खेल
तेरे हर अक्स में रचा बसा है !!