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परचै राम रमै जै कोइ / रैदास

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कवि: रैदास

परचै राम रमै जै कोइ।

पारस परसें दुबिध न होइ।। टेक।।

जो दीसै सो सकल बिनास, अण दीठै नांही बिसवास।

बरन रहित कहै जे रांम, सो भगता केवल निहकांम।।१।।

फल कारनि फलै बनराइं, उपजै फल तब पुहप बिलाइ।

ग्यांनहि कारनि क्रम कराई, उपज्यौ ग्यानं तब क्रम नसाइ।।२।।

बटक बीज जैसा आकार, पसर्यौ तीनि लोक बिस्तार।

जहाँ का उपज्या तहाँ समाइ, सहज सुन्य में रह्यौ लुकाइ।।३।।

जो मन ब्यदै सोई ब्यंद, अमावस मैं ज्यू दीसै चंद।

जल मैं जैसैं तूबां तिरै, परचे प्यंड जीवै नहीं मरै।।४।।

जो मन कौंण ज मन कूँ खाइ, बिन द्वारै त्रीलोक समाइ।

मन की महिमां सब कोइ कहै, पंडित सो जे अनभै रहे।।५।।

कहै रैदास यहु परम बैराग, रांम नांम किन जपऊ सभाग।

ध्रित कारनि दधि मथै सयांन, जीवन मुकति सदा निब्रांन।।६।।

।। राग रामकली।।