भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँख की किरकिरी / मानिक बच्छावत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:57, 13 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानिक बच्छावत |संग्रह= }} <Poem> सास्ते से उड़ती धूल ...)
सास्ते से उड़ती
धूल के बारीक कण
गिर गए उड़कर
आँख में
आँख
रड़कने लगी
हम मलने लगे
आँख लाल हो गई
दिखने लगीं
चीज़ें धुंधली
हमें याद आई
वह नसीहत कि
एक आँख में पड़ जए
किरकिरी तो
दूसरी आँख को मलो
उस आँख को
कभी न मलो
जिसमें पड़ी हो किरकिरी
याद आती है हमें
रवीन्द्रनाथ की
चोखेरबाली
किसने डाली
हमारी आँखों में किरकिरी
ज़रूर हमने
अपनी आँखों से
ऎसा कुछ देखा है
लालच से, लोभ से
ऎसा कुछ पाने को जो
हमारा नहीं है
अब हम धोने बैठ गए
आँख को
ठंडे पानी की फुहारों से
जब तक किरकिरी
निकल न जाए आँख से
चैन नहीं पड़ता
भीतर छिपी हुई
लालसा की तरह
रिस रही है वह!