रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 7
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"तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
- पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
- कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नही ले जाना है.
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
- कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
- लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं.
"प्रासादों के कनकाभ शिखर,
- होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
- कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
- मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
- करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
- नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
- आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.
"उड़ते जो झंझावतों में,
- पीते सो वारी प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
- विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
- सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
दुर्योधन पर है विपद घोर,
- सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको.
"संग्राम सिंधु लहराता है,
- सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
- बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.
"अब देर नही कीजै केशव,
- अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें,
- संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.
"हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
- मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
- जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
- सारी संपत्ति मुझे देंगे.
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
- दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
- हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
रण मे ही अब दर्शन होंगे,
- शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."
रथ से रधेय उतार आया,
- हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
- तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."