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बस्ते ही बचाते हैं / राजी सेठ
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कवि: राजी सेठ
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बस्ते ही बचाते हैं टूटते हुए घर
दरवाजे खुल चुके थे
तकिये पर काढ़े हुए फूल
बाहर निकल चुके थे
पतीली में खदबदाता पानी
पेंदे तक पहुंच चुका था
तल्खी के उच्छ्वास से
पीला सोना पिघल रहा था
आंगन की धुंआस से
हवा घुट चुकी थी
सप्तपदी पलट रही थी
पड़ौसी पंखे पकड़ चुके थे
हितैषी आंखें ढ़क चुके थे
गालों पर गुलाब
रक्त की ताजी गंध वाले हाथ
पांवों में छलांग
कंधे का बस्ता
उसने खूंटी पर लटकाया
और दरवाजा बंद किया