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रचना / अरुणा राय

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जब कोई बात मेरी समझ में आती है पर जिसे समझाना मुश्किल होता है तब शब्दों को उसके पारंपरिक अर्थों से अलग करते हुए एक जुदा अंदाज में सामने रखती हूं मैं और देखती हूं कि शब्द किस तरह सक्रिय हो रहे हैं और मैं खुद को गौण कर देती हूं फिर फटी आंखों देखती हूं कि क्घ्या रच डाला है मैंने और वह कैसे खड़ी है रूबरू मेरे मुझसे ही आंखें मिलाती फिर मैं उसे छोड़ देती हूं समय की धुंध में खड़ी होने को और कल को उसे खड़ी पाती हूं ...