दो चिराग़ / अली सरदार जाफ़री
दो चिराग़
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तीरगी के सियाह ग़ारों से
शहपरों की सदाएँ आती हैं
ले के झोंकों की तेज़ तलवारें
ठण्डी-ठण्डी हवाएँ आती हैं
बर्फ़ ने जिन पे धार रक्खी है
एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार
इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी
</ref>
वोह बुझी-सी है वह उदास-
सा है
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में
तीरगी और हवा से लड़ते हैं
तीरगी उठ रही है मैदाँ में
फ़ौज-दर-फ़ौज बादलों की तरह
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को
भींच लेते
हैं मैले आँचल को
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है
शो’ला रह-रह के थरथराता है
नंगी बू
ढ़ी ज़मीन काँपती है
तीरगी अब सियह समन्दर है
और हवा हो गयी है दीवानी
या तो दोनों चिराग़ गुल होंगे
या करेंगे वो शो’ला-अफ़शानी<ref>अंगारे बरसाना </ref>
फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref>
पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा
</ref> है इन पर
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला
दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं