भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़कियों से / इला प्रसाद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:08, 14 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इला प्रसाद }} <poem> मत रहो घर के अन्दर सिर्फ़ इसलिए ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मत रहो घर के अन्दर

सिर्फ़ इसलिए

कि सड़क पर खतरे बहुत हैं।

चारदीवारियाँ निश्चित करने लगें जब

तुम्हारे व्यक्तित्व की परिभाषाएँ

तो डरो।

खो जायेगी तुम्हारी पहचान

अँधेरे में,

तुम्हारी क्षमताओं का विस्तार बाधित होगा

डरो।

सड़क पर आने से मत डरो

मत डरो कि वहाँ

कोई छत नहीं है सिर पर।
 

तुमने क्या महसूसा नहीं अब तक

कि अपराध और अँधेरे का गणित

एक होता है?

और अँधेरा घर के अन्दर भी

कुछ कम नहीं है।

डरना ही है तो अँधेरे से डरो

घर के अन्दर रहकर,

घर का अँधेरा,

बनने से डरो।