तन के तट पर / किशोर काबरा
कवि: किशोर काबरा
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तन के तट पर मिले हम कई बार, पर -
द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।
डूबकर गल गए हैं हिमालय, मगर -
जल के सीने पे इक बुलबुला ही नहीं।
जिंदगी की बिछी सर्प-सी धार पर
अश्रु के साथ ही कहकहे बह गए।
ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से,
बोल दो थे, मगर अनकहे रह गए।
सैर करके चमन की मिला क्या हमें?
रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।
चंदनी छन्द बो कर निरे कागजी
किस को कविता की खुशबू मिली आज तक?
इस दुनिया की रंगीन गलियों तले
बेवंफाई की बदबू मिली आज तक।
लाख तारों के बदले भरी उम्र में
मेरा मन का महाजन तुला ही नहीं।
मर्मरी जिस्म को गर्म सांसें मिली,
पर धड़कता हुआ दिल कहां खो गया?
चांद-सा चेहरा झिलमिलाया, मगर-
गाल का खुशनुमा तिल कहां खो गया?
आंख की राह सावन बहे उम्र भर,
दाग चुनरी का अब तक धुला ही नहीं।