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राष्ट्रभाषा / वीरेंद्र मिश्र

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स्वागत करती हिंदी सबका, बिखरा कुंकुम रोली

धरती-जाई भाषा अपनी, जननी, अपनी बोली

हिंदी यही, जय हिंद यही है प्रेम-पुजारिन हिंदी इसके एक नयन में गंगा दूजे में कालिंदी अंतर्धारा के संगम पर, इसने मिसरी घोली धरती-जाई भाषा अपनी, जननी, अपनी बोली।

तुलसी, मीरा ज्योति नयन की दास कबीरा ज्वाला जिसको गुन लेता सूरा भी उसका ठाठ निराला देवी के मंदिर द्वारे पर रचना है रंगोली धरती-जाई भाषा अपनी, जननी, अपनी बोली।

इसका स्वाद प्रसाद बहुत है जनभाषा रसवंती ऋतुओं में वासंती है यह रागों में मधुवंती भाषाएँ हों चाहे जितनी, यह सबकी हमजोली धरती-जाई भाषा अपनी, जननी, अपनी बोली।

हिंसा से जलती दुनिया में हिंदी अमृत-वाणी तोड़ेगी क्यों, जोड़ेगी यह सबकी रामकहानी मिट्टी में मिल जाएँ न सपने, यह है उनकी झोली धरती-जाई भाषा अपनी, जननी, अपनी बोली।