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कहीं तो होंगे अभयारण्य / नंद भारद्वाज

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जब उलट-पलट गई हो सारी कायनात
हवा के शोर में डूबी भयातुर चिड़ियों की चहकार
कौन जाने कितने पेड़ बच रहे होंगे
कितने परिन्दे रहे होंगे सलामत कितनी झाड़ियाँ
प्रजातियाँ कौन-कौन-सी शेष रह गई होंगी
                       इस अशान्त बियाबान में !

सूक्ष्म जीव-जन्तुओं की नियति को
यदि छोड़ भी दिया जाय उन्हीं के हाल पर,
तब भी अंवेरने संवारने को
बहुत कुछ बच गए होंगे
संभावित जीवन के अवशेष
                इस तूफ़ान में ।

इस सामने दीखते
घायल बरगद की छाँव में
कितने शरणागतों को मिला होगा आसरा
जिसे पुरखों ने बड़े चाव से
उगाया था बस्ती के बीचो-बीच
ऐसे न जाने कितने और दरख़्त
उखड़ कर बह गए होंगे
समय के टूटते प्रवाह में !

परिन्दे नहीं जानते कि समय
कैसा बरताव करेगा उनके साथ
जब सारे हलके में कहर मचा होगा
वे उड़ते रहेंगे क्षितिज के आर-पार
जहाँ हरे-भरे खेत होंगे -
            लहलहाती फसलें होंगी
ढलानों पर दूर-दूर तक पसरी होगी हरियाली
कहीं तो होंगे अभयारण्य
दुर्लभ पक्षियों के समूह
अचानक उड़ जाने का अनचाहा अहसास
इन रूखे-सूखे दरख़्तों की देह में
ऐसे ही आएगी बहार
ऐसे गुज़र जाएंगी
        समय की बेरहम दुश्वारियाँ !