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हुई विद्रुम बेला नीली / महादेवी वर्मा

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मेरी चितवन खींच गगन के कितने रँग लाई !
शतरंगों के इन्द्रधनुष-सी स्मृति उर में छाई;
राग-विरागों के दोनों तट मेरे प्राणों में,
श्वासें छूतीं एक, अगर निःश्वासें छू आईं !

अधर सस्मित पलकें गीली !

भाती तम की मुक्ति नहीं, प्रिय रोगों का बन्धन;
उड़ कर फिर लौट रहे हैं लघु उर में स्पन्दन;

क्या जीने का मर्म यहाँ मिट मिट सब ने जाना ?
तर जाने को मृत्यु कहा क्यों बहने को जीवन ?