भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यौवन का पागलपन / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम कहते हैं बुरा न मानो,
यौवन मधुर सुनहली छाया।

सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,
मिट-मिटकर दुनिया देखे रोज़ तमाशा।
यह गुदगुदी, यही बीमारी,
मन हुलसावे, छीजे काया।

हम कहते हैं बुरा न मानो,
यौवन मधुर सुनहली छाया।

वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,
वह आया सपने में, मन में, उठकर,
वह आया साँसों में से स्र्क-स्र्ककर।

हो न पुरानी, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहिनी माया!

हम कहते हैं बुरा न मानो,
यौवन मधुर सुनहली छाया।