भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे मानूँ तुम्हें प्राणधन / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:08, 7 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी |संग्रह=हिम तरंगिनी / माखनला...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसे मानूँ तुम्हें प्राणधन
जीवन के बन्दी खाने में,
श्वास-वायु हो साथ, किन्तु
वह भी राजी कब बँध जाने में?

इन्द्र-धनुष यदि स्थायी होते
उनको यदि हम लिपटा पाते,
हरियाली के मतवाले क्यों
रंग-बिरंगे बाग लगाते?

ऊपर सुन्दर अमर अलौकिक
तुम प्रभु-कृति साकार रहो,
मजदूरी के बंधन से उठ-
कर पूजा के प्यार रहो।

दिन आये, मैंने उन पर भी
लिखी तुम्हारी अमर कहानी,
रातें आईं स्मृति लेकर
मैंने ढाला जी का पानी।

घड़ियाँ तुम्हें ढूँढ़ती आईं,
बनी कँटीली कारा-कड़ियाँ
आग लगाकर भी कहलाईं
वे दॄग-सुख वाली फुलझड़ियाँ।

मैंने आँखें मूँदी, तुमको
पकड़ जोर से जी में खींचा,
किन्तु अकेला मेरा मस्तक
ही रह गया, झाँकता नीचा।

मेरी मजदूरी में माधवि,
तुमने प्यार नहीं पहचाना,
मेरी तरल अश्रु-गति पर
अपना अवतार नहीं पहचाना।