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अहम् अस्मि / प्रताप सहगल
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पहाड़ों की गुफ़ाओं में
भागते चले जाना
अंधे घोड़ों की तरह
और शिलाखंडों पर
समय की स्याही से
लिख देना
अपना पैग़ाम
शताब्दी के नाम
या बिखेर देना रंगों के दरिया
पेड़ की जड़ों में
या भर देना
शून्य को
हज़ार-हज़ार सूरजों की लाली बन
या सोख लेना
समुद्र का खारापन
आचमन की मुद्रा में
और धरती की तहों में भर लेना
एक अविजित एहसास
बहुत मामूली से लगने वाले पलों का
आदमियत की अविरल बहती परम्परा में
ख़ुद को पहचानने की कोशिश ही तो है !