भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाषाण खंड / सुमित्रानंदन पंत

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:55, 27 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत }}<poem>वह अनगढ़ पाषाण खंड था- मैंन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह अनगढ़ पाषाण खंड था-
मैंने तपकर, खंटकर,
भीतर कहीं सिमटकर
उसका रूप निखारा
तदवत भाव उतारा

श्री मुख का
सौंदर्य सँवारा!

लोग उसे
निज मुख बतलाते
देख-देख कर नहीं अघाते
वह तो प्रेम
तुम्हारा प्रिय मुख
तन्मय अंतर को
देता सुख