जो पै हरिहिंन शस्त्र गहाऊं / सूरदास
जो पै हरिहिंन शस्त्र गहाऊं।
तौ लाजौं गंगा जननी कौं सांतनु-सुतत कहाऊं॥
स्यंदन खंडि महारथ खंडौं, कपिध्वज सहित डुलाऊं।
इती न करौं सपथ मोहिं हरि की, छत्रिय गतिहिं न पाऊं॥
पांडव-दल सन्मुख ह्वै धाऊं सरिता रुधिर बहाऊं।
सूरदास, रणविजयसखा कौं जियत न पीठि दिखाऊं॥
भावार्थ :- जब अर्जुन श्रीकृष्ण को रण का निमंत्रण देने गये, तब उन्होंने अर्जुन से कहा," मैं तुम्हारे साथ रहूंगा अवश्य, पर हाथ में शस्त्र नहीं लूंगा। " उसी प्रतिज्ञा के अनुसार श्रीकृष्ण ने रथ हांकना स्वीकार किया। इधर भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा की कि मैं अवश्य कृष्ण की प्रतिज्ञा तोड़ डालूंगा, उन्हें शस्त्र लेना ही पड़ेगा। यह पद उसी प्रसंग का है। तौ....कों, भीष्म पितामह ने गंगा के गर्भ से जन्म लिया था। कहते है, यदि मैंने इतना न किया तो गंगा का पुत्र नहीं, गंगा के दूध लजाने वाला कुपुत्र कहा जाऊंगा। `सांतनु-सुत' भीष्म के पिता का नाम महाराज शांतनु था। `इती....पाऊं,' जिन्हें वे परास्त करना चाहते है, उसी की शपथ लेते हैं। हरि के ही बल पर हराना चाहते हैं।
शब्दार्थ :- स्यंदन =रथ। खंडि =टुकड़े-टुकड़े करके। कपिधवज = अर्जुन के रथ की पताका, जिस पर हनुमान का चित्र था। डुलाऊं = विचलित कर दूं। विजयसखा = अर्जुन के सखा श्रीकृष्ण।