विस्मृति / महादेवी वर्मा
जहाँ है निद्रामग्न वसंत
तुम्हीं हो वह सूखा उद्यान,
तुम्हीं हो नीरवता का राज्य
जहाँ खोया प्राणों ने गान;
निराली सी आँसू की बूँद
छिपा जिसमें असीम अवसाद,
हलाहल या मदिरा का घूँट
डुबा जिसने ड़ाला उन्माद!
जहाँ बन्दी मुरझाया फूल
कली की हो ऐसी मुस्कान,
ओसकन का छोटा आकार
छिपा जो लेता है तूफान;
जहाँ रोता है मौन अतीत
सखी! तुम हो ऐसी झंकार,
जहाँ बनती आलोक समाधि
तुम्हीं हो ऐसा अन्धाकार।
जहाँ मानस के रत्न विलीन
तुम्हीं हो ऐसा पारावार,
अपरिचित हो जाता है मीत
तुम्हीं हो ऐसा अंजनसार!
मिटा देता आँसू के दाग
तुम्हारा यह सोने सा रंग,
डुबा देती बीता संसार
तुम्हारी यह निस्तब्ध तरंग।
भग्न जिसमें हो जाता काल
तुम्हीं वह प्राणों का सन्यास,
लेखनी हो ऐसी विपरीत
मिटा जो जाती है इतिहास;
साधनाओं का दे उपहार
तुम्हें पाया है मैंने अन्त,
लुटा अपना सीमित ऐश्वर्य
मिला है यह वैराग्य अनन्त।
भुला ड़ालो जीवन की साध
मिटा ड़ालो बीते का लेश;
एक रहने देना यह ध्यान
क्षणिक है यह मेरा परदेश!