तिलांजलि / अजित कुमार
एक आग थी
सूखी हुई हड्डियों को जलाती
एक धारा थी
रुकते-रुकते भी बही जाती
और भीड़
जो खुद ही अपने लिए पराई
एक ठंडी-सी साँस ।
तू कहाँ से उभर आई ?
महाब्राह्मण
और अंजलि में अटके हुए
थोड़े-से तिल…
आज किसको मैं देता हूँ तिलांजलि ?
वह शरीर था बिलकुल सामान्य
साँवला, दुर्बल, जर्जर
रोग भी तो उसमें थे अनेक
रक्तचाप
क्रोध
ममता
मधुमेह
आकांक्षा…
फिर भी लाठी के सहारे
वह चला जा रहा था ।
क्या हम जानते हैं
कितनी चीज़ें हमें धोखा देंगी,
और कितने लोग ?
सुनो । विश्वास करनेवालो । सुनो ।
अपने को, स्वयं अपने को
धोके में रखने से बचो ।
उसे लाठी पर अपनी
कितना बड़ा विश्वास था…
उसी ने धोखा दिया ।
थका हुआ और आहत
वह पड़ा था, साँस लेता ।
अपने पुत्र से, मानो मृत्यु से,
उसने तब भी कहा था—
“मैंने आपको पहचाना नहीं ।“
इसके बाद—
निर्मम चार शब्दों के बाद—
वह उठा
और चला
और बढा :
कमज़ोर चीज़ों को
अपनी ही तरह मज़बूत मानकर
पर वे न थीं ।
और वह गिरा ।
बुझ-सी गई है चिता ।
बह-सा गया है जल ।
मेरी अँजुरी में अटके हैं थोड़े-से तिल… ।
मेरी जीवन पर पड़े हुए कुछ काले दाग…
आज किसको मैं देता हूँ तिलांजलि ?
मेरे मन के आल्हाद ।
मेरे मन के अवसाद ।