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औद्योगिक बस्ती / अज्ञेय

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पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में
ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर
धुआँ उगलती जाती हैं।
भीतर जलते लाल धातु के साथ
कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी
तप्त उबलती जाती हैं।
बंधी लीक पर रेलें लादें माल
चिहुँकती और रंभाती अफ़राये डाँगर-सी
ठिलती चलती जाती हैं।
उद्यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्तिकाम
मानव की आशाएँ ही पल-पल
उस को छलती जाती हैं।