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निरस्त्र / अज्ञेय

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Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 09:11, 17 मार्च 2008 का अवतरण

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कुहरा था,

सागर पर सन्नाटा था:

पंछी चुप थे।

महाराशि से कटा हुआ

थोड़ा-सा जल

बन्दी हो

चट्टानों के बीच एक गढ़िया में

निश्चल था—

पारदर्श।


प्रस्तर-चुम्बी

बहुरंगी

उद्भिज-समूह के बीच

मुझे सहसा दीखा

केंकड़ा एक:

आँखें ठण्डी

निष्प्रभ

निष्कौतूहल

निर्निमेष।


जाने

मुझ में कौतुक जागा

या उस प्रसृत सन्नाटे में

अपना रहस्य यों खोल

आँख-भर तक लेने का साहस;

मैंने पूछा: क्यों जी,

यदि मैं तुम्हें बता दूँ

मैं करता हूँ प्यार किसी को—

तो चौंकोगे?

ये ठण्डी आँखें झपकेंगी

औचक?


उस उदासीन ने

सुना नहीं:

आँखों में

वही बुझा सूनापन जमा रहा।

ठण्डे नीले लोहू में

दौड़ी नहीं

सनसनी कोई।


पर अलक्ष्य गति से वह

कोई लीक पकड़

धीरे-धीरे

पत्थर की ओट

किसी कोटर में

सरक गया।


यों मैं

अपने रहस्य के साथ

रह गया

सन्नाटे से घिरा

अकेला

अप्रस्तुत

अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र

निष्कवच,

वध्य।