भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होने का सागर / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:03, 31 मार्च 2008 का अवतरण
सागर जो गाता है
वह अर्थ से परे है—
वह तो अर्थ को टेर रहा है।
हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है,
जो अर्थ हमें बहलाता (कि सहलाता) है
वह सागर में नहीं,
हमारी मछली में है
जिसे सभी दिशा में
सागर घेर रहा है।
आह, यह होने का अन्तहीन, अर्थहीन सागर
जो देता है सीमाहीन अवकाश
जानने की हमारी गति को:
आह यह जीवित की लघु विद्युद्-द्रुत सोन-मछली
केवल मात्र जिस की बलखाती गति से
हम सागर को नापते क्या, पहचानते भी हैं!