भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीभ की गाथा / अरुण कमल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 9 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल |संग्रह= }} <Poem> दाँतों ने जीभ से कहा-- ढीठ, ...)
दाँतों ने जीभ से कहा-- ढीठ, सम्भल कर रह
हम बत्तीस हैं और तू अकेली
चबा जाएंगे
जीभ उसी तरह रहती थी इस लोकतांत्रिक मुँह में
जैसे बाबा आदम के ज़माने से
बत्तीस दाँतों के बीच बेचारी इकली जीभ
बोली, मालिक आप सब झड़ जाओगे एक दिन
फिर भी मैं रहूंगी
जब तक यह चोला है।