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चार शे’र / अली सरदार जाफ़री

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चार शे’र


जब से इन्सान की अज़्मत<Ref>महानता</ref> पे ज़वाल<ref>पतन</ref> आया है
है हर इक बुत को ये दा’वा कि खुदा है जैसे

एक आवाज़-सी है वक़्त के सन्नाटे में
दिले-गेती<ref>संसार का दिल</ref> के धड़कने की सदा हो जैसे

है उफ़ुक़-ता-ब-उफ़ुक़<ref>क्षितिज से क्षितिज तक</ref> ख़ूने-शहीदाँ की शफ़क़<ref>लालिमा</ref>
किसी शो’ले के लपकने की अदा हो जैसे

दिल को इस तरह से छूती है किसी हुस्न की याद
आरिज़े-गुल<ref>फूल का कपोल</ref> पे लबे-बादे-सबा<ref>पुरवा हवा के होंठ</ref> हो जैसे


शब्दार्थ
<references/>