मैं और तू / महादेवी वर्मा
तुम हो विधु के बिम्ब और मैं
मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर
कौतूहल के बाण !
कलियों के मधुप्यालों से जो
करती मदिरा पान,
झाँक, जला देती नीड़ों में
दीपक सी मुस्कान।
लोल तरंगों के तालों पर
करती बेसुध लास,
फैलातीं तम के रहस्य पर
आलिंगन का पाश।
ओस धुले पथ में छिप तेरा
जब आता आह्वान,
भूल अधूरा खेल तुम्हीं में
होता अन्तर्धान !
तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं
चंचल सी अवदात,
अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो
कूलों पर अज्ञात;
हिम-शीतल अधरों से छूकर
तप्त कणों की प्यास,
बिखराती मंजुल मोती से
बुद्बुद में उल्लास,
देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में
करते अनुसन्धान,
श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा
जिसके बालक प्राण !
तम परिचित ऋतुराज मूक मैं
मधु-श्री कोमलगात,
अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती
आ तुषार की रात;
पीत पल्लवों में सुन तेरी
पद्ध्वनि उठती जाग,
फूट फूट पड़ता किसलय मिस
चिरसंचित अनुराग;
मुखरित कर देता मानस-पिक
तेरा चितवन-प्रात;
छू मादक निःश्वास पुलक—
उठते रोओं से पात !
फूलों में मधु से लिखती जो
मधुघड़ियों के नाम,
भर देती प्रभात का अंचल
सौरभ से बिन दाम;
‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती
आ संतप्त बयार,
मिल तुझमें उड़ जाता जिसका
जागृति का संसार !
स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की
तुम निद्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का
उपक्रम उपसंहार;
पलकों से पलकों पर उड़कर
तितली सी अम्लान,
निद्रित जग पर बुन देती जो
लय का एक वितान;
मानस-दोलों में सोती शिशु
इच्छाएँ अनजान,
उन्हें उड़ा देती नभ में दे
द्रुत पंखों का दान !
सुखदुख की मरकत-प्याली से
मधु-अतीत कर पान,
मादकता की आभा से छा
लेती तम के प्राण;
जिसकी साँसे छू हो जाता
छाया जग वपुमान,
शून्य निशा में भटके फिरते
सुधि के मधुर विहान;
इन्द्रधनुष के रंगो से भर
धुँधले चित्र अपार,
देती रहती चिर रहस्यमय
भावों को आकार !
जब अपना संगीत सुलाते
थक वीणा के तार,
धुल जाता उसका प्रभात के
कुहरे सा संसार !
फूलों पर नीरव रजनी के
शून्य पलों के भार,
पानी करते रहते जिसके
मोती के उपहार;
जब समीर-यानों पर उड़ते
मेघों के लघु बाल,
उनके पथ पर जो बुन देता
मृदु आभा के जाल;
जो रहता तम के मानस से
ज्यों पीड़ा का दाग,
आलोकित करता दीपक सा़
अन्तर्हित अनुराग।
जब प्रभात में मिट जाता
छाया का कारागार,
मिल दिन में असीम हो जाता
जिसका लघु आकार;
मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं
जैसे रश्मि प्रकाश;
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों
घन से तड़ित्-विलास;
मुझे बाँधने आते हो लघु
सीमा में चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या
ज्वाला से उत्ताप ?