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यहाँ की बरसात / नरेन्द्र शर्मा

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(१)
गरज रहे घिर मेघ साँवले, नाच रही गोरी बिजली;
बरस रही होंगी ऐसी ही बूँदें घर-घर, गली-गली!
दीवारों से लगे खड़े होंगे चुप छान और छप्पर,
झरती होगी खामोशी से औलाती भी किन-मिन कर!
चौड़ी छाती खोल असाढ़ी पड़ी पी रही होगी आल,
शरमा कर हामी भरती-सी होगी झुकी नीम की डाल!
बरस रहीं बूँदें रिम-झिम कर, तरस रहीं प्यासी आँखें,
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!
बहुत दूर वह जहाँ भमीरी ताँबे की उड़ती फिरती,
भरी पोखरों में भैसों की जहाँ पल्टनें फट पड़तीं!
वह बरसाती शाम रँगीली, खेतों की सौंधी धरती!
ऊँची ऊँची घास लहरती, बंजर में गायें चरतीं,
बूँदा-बाँदी से दुखयातीं, खड़े रोंगटे, नीला रंग,
पूँछ उठा भर रहीं चौकड़ी, सुते छरहरे चंचल अँग!
एक हुए होंगे जल-जंगल, पर मैं उनसे कितनी दूर!
डोल रहे होंगे पटबिजना जलता जैसे चूर कपूर!
मोद भरे पीले फूलों से खिल बकावली मेड़ों पर--
बैठी होगी; जामुन अँबियाँ लदीं रौस के पेड़ों पर!
कौंध रही बिजली रह रह कर चुँघिया जाती हैं आँखें,
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!