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यह लाशों का रखवाला / माखनलाल चतुर्वेदी
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उनके सपने हरियाता मेरी सूझों का पानी
मुझसे बलि-पन्थ हरा है, मुझ पर दुनियाँ दीवानी!
एकान्त हमारा, विधि से विद्रोहों की मस्ती है,
उन्माद हमारा, शत-शत अरमानों की बस्ती है।
हमने दुनियाँ खो डाली, तब जग ने हमको पाया!
हम अपने पर हँस उट्ठे, तब कहीं जगत रो पाया!
ईंटों, पाषाणों का नर, ईमान न जीने देगा,
यह लाशों का रखवाला, नव-प्राण न जीने देगा!
रचनाकाल: ट्रेन में होशंगाबाद-१९४०