भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाल / शिवप्रसाद जोशी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:10, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवप्रसाद जोशी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> यूँ ही नहीं …)
यूँ ही नहीं चलती थी हवा
बारिश भी ऐसे नहीं गिरती थी
धूप भी नहीं छुड़ा देती थी सब कुछ
मन ज़्यादा प्रकाश बर्दाश्त नहीं करता था बस
चिंतन नहीं रहता था भीगा हुआ हमेशा
शख़्सियत इस क़दर न गीली होती थी न सूखी हुई
पर इन पेड़ों से गुज़रते इस मौसम ने
मुझे बेतरतीब कर दिया
किसी से नहीं मिलता
निकलता हूँ कहीं जाने के लिए नहीं
एक नकार और एक धिक्कार
मेरे सीने में धँसा है
बाण
प्रेम तो उसे हरगिज़ न समझिए
निजात दिला दो ओ मौसम
उसी नीले समंदर में डूबने दो
अवसाद दर्ज़ होने दो इसी दलदल में
पत्तों की हवा की बादल की
और आँसुओं की यह दलदल
दया नहीं
मुक्ति चाहिए
संतोष चाहिए
समय में हवा की फड़फड़ है
और उसमें मृत्यु का जो अहसास है
मुझे यही साहस चाहिए ।