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सच का हाथ / मोहन राणा

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ये आवाजें

ये खिंचे हुए

उग्र चेहरे

चिल्लाते


मनुष्यता खो चुकी

अपनी ढिबरी मदमस्त अंधकार में

बस टटोलती एक क्रूर धरातल को,

कि एक हाथ बढ़ा कहीं से

जैसे मेरी ओर

आतंक से भीगे पहर में

कविता का स्पर्श,

मैं जागा दुस्वप्न से

आँखें मलता

पर मिटता नहीं कुछ जो देखा


7.2.2006